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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !


एक कांग्रेसी कार्यकर्त्ता ११४२ में जेलके अनुभव सुनाते हुए बोले-जेलके कठोर दिन थे। राजनीतिक कार्योंमें लगे रहनेके कारण छः महीनेका कारावास मिला था। हमारे साथ कई व्यक्ति ऐसे सम्पन्न समृद्ध घरानोंके भी थे, जो भावावेशके कारण जेल-जीवनमें आ घुसे थे और उस कठोर अभावपूर्ण जीवनके अभ्यस्त न थे। विषम परिस्थितियां उन्हें विचलित कर रही थीं। जेलका भोजन क्या था, बस पशुओं-जैसा चारा समझिये। गिनी हुई चार मोटे आटेकी अधसिंकी, अधपकी रोटियाँ पत्तियोंका साग (जिसमें कभी-कभी कीड़ोंके कटे हुए शरीर भी उबले हुए मिलते थे), न शक्कर, न घी। न उसमें किसी प्रकारका स्वाद। मनमें अपने परिवार बत्धनुबान्धवोंसे वियोगका मानसिक आघात, घरकी, व्यवसायकी असंख्य चिन्ताएं और मानसिक दुःखका बोझ। फल यह हुआ कि जेलसे कारावासका समय पूर्ण कर जब वे निकले तो अस्थि-पिंजरवत् शरीरपर जैसे मांसका नाम नहीं।

दूसरी ओर हमारी मनोवृत्ति देखिये। जिस क्षणसे हम जेलमें दाखिल हुए, हमने समझ लिया कि जेल ही हमारा संसार है। हम इसी जेलमें जन्मे हैं; जेलके कैदी ही हमारे इष्ट-मित्र और परिवारके सदस्य हैं। यहाँ जो असुविधाएँ खान-पान तथा मिलने-जुलनेकी विषमता, दुःख या तकलीफें हैं; वे जन्मसे ही हमें मिली हैं। कठोर परिस्थितियोंमें ही हमें हँसी-खुशीसे रहना है। इस क्षेत्रसे परे और कुछ नहीं। जो भोजन हमें मिलता है, वही हमारा वास्तविक भोजन है; उसीमें हमें स्वास्थ्य और आनन्द प्राप्त करना है। अपने दैनिक कार्योंमें स्वावलम्बन रखना है। किसी अन्यके ऊपर निर्भर नहीं रहना है। यों सोचकर हम उन कठोर परिस्थितियोंके अनुकूल बन गये और कुछ दिनों बाद तो उस कठोर जीवनके इतने अभ्यस्त हो गये कि उसमें हमें कोई कष्ट या असुविधा ही नहीं मालूम होती थी। इस मनःस्थितिका प्रभाव यह हुआ कि जब हम जेलसे छूटे तो हमारा वजन छः पौंड बढ़ गया था। जेलमें इससे पूर्व हमारा वजन ११२ पौंड था, जब बाहर आनेपर तुले तो ११८ पौंड हो गया था।

हमारे समाजमें दो प्रकारके व्यक्ति है-एक तो वे जो पग-पगपर किन्हीं विशेष परिस्थितियोंमें ही सुखी-संतुष्ट रहते है, पग-पगपर अपने आराम, व्यवस्था तथा जीवनके लिये दूसरोंपर ही अवलम्बित रहते है। संयोगवश यदि दूसरे उनके पाससे अन्यत्र चले जायँ या उन्हें नवीन परिस्थितियों और नये वातावरणमें रहनेका अवसर आ पड़े, तो उनके लिये कष्टका समय उपस्थित हो जाता है। नयी परिस्थितियाँ उन्हें दुःखी कर डालती है। वे मन-ही-मन नाना प्रकारकी मानसिक चिन्ताओं, गुप्त वेदनाओं और काल्पनिक कष्टोंका तूफान उठा लेते है।

दूसरे वर्गमें वे व्यक्ति आते हैं, जो स्वयं अपने समस्त व्यक्तिगत कार्य बिना किसी परावलम्बनके बखूबी पूरे करते हैं और समय पड़नेपर नयी परिस्थितियोंमें ढलकर स्वयं सुखी-संतुष्ट रहते हैं और दूसरोंको भी यथाशक्ति सहायता प्रदान करते हैं, नयी-नयी प्रेरणाएँ देते हैं। जैसी परिस्थितियोंमें रहनेकी विवशता हो, उसीमें प्रसन्न रहते हैं। इस स्वावलम्बन तथा नयी परिस्थितियोंमें ढल जानेकी लचकके कारण वे विषमतामें भी आह्लादपूर्ण मनोभाव बनाये रहते हैं। व्यर्थकी कल्पित चिन्ताएँ उन्हें व्यग्र-विचलित नहीं करतीं। यही उर्वर मनोभूमि मनुष्यको चाहिये।

नयी परिस्थितियोंमें यकायक आ जानेके कारण कुछ व्यक्ति बड़े अस्तव्यस्त हो जाते हैं। मनसे व्यग्र हो उठते हैं और नाना प्रकारकी काल्पनिक चिन्ताओंके महल बनाया करते हैं। ऐसी अनेक दुश्रिन्ताओंकी कल्पना कर लेते हैं, जो भविष्यके जीवनमें कभी भी घटित नहीं होतीं, पर अंदर-ही-अंदर उनकी शक्ति और सामर्थ्यको खाये डालती हैं।

अब आगे क्या होगा? हमारा जो सहारा था, वह नहीं रहा। नये वातावरणमें काम कैसे चलायेंगे? कौन हमारा सहायक होगा? हमारी आर्थिक कठिनाइयाँ या सामाजिक प्रतिकूलताएँ आखिर अब कैसे हल होंगी? आगे हमारे आश्रितों, पुत्र-पुत्रियोंका क्या होगा? उनके भोजन-निवासकी व्यवस्था कैसे होगी? ऐसे अनेक कल्पित भावोंकी दलदलमें वे फँसे रहते हैं! वास्तवमें ये या इसी प्रकारकी और प्रतिकूलताएँ ऐसी हैं, जिनमेंसे बहुत-सी अनहोनी हैं। आगे होनेवाली नहीं हैं।

हमारे शहरमें एक नवयुवकका संयोगसे देहान्त हो गया। विधवा पलीने सोचा कि अब क्या होगा; विधवाका जीवन न जाने कैसा होता होगा? उसमें न जाने कौन-कौन-सी विपत्तियाँ तिरस्कार, कठिनाइयाँ आती होंगी? मेरे बच्चोंका क्या होगा? रुपया कहाँसे आयेगा? इसी प्रकारकी अनेक मानसिक चिन्ताओंमें निमग्न रहनेके कारण वह गुप्त वेदनामें इतनी डूबी कि फिर न उठ सकी। उसके एक सप्ताह पश्चात् गुप्त मानसिक भयसे उसकी मृत्यु हो गयी। बच्चे अनाथ रह गये।

यदि वह भावावेश और नयी परिस्थितियोंकी कल्पनासे न डरती, तो हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं, इस विषमतासे मुक्तिका मार्ग भी अवश्य निकल आता। कहींसे भोजन, निवास, शिक्षा, बच्चोंके विवाह आदिकी भी व्यवस्था हो ही जाती।

हिंदू-समाजमें आज असंख्य विधवाएँ है। इनमेंसे अनेक विधवाएँ शारीरिक परिश्रम या मानसिक श्रम करके जीविका उपार्जन करती हैं और स्वावलम्बनका जीवन व्यतीत करती हैं। जैसे विवाहके पूर्व बिना पतिके वे रह सकती है, वैसे ही वे फिर बदलकर रहने लगती हैं। अब उन्हें पतिपर अवलम्बित रहनेकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती। पहाड़ी स्त्रियोको देखें, तो आपको विदित होगा कि उनके पति प्रायः युद्धमें सैनिकका कार्य करनेके लिये चले जाते हैं, उनकी अनुपस्थितिमें भी वे मजेमें जीवन चलाती हैं। उन्हें पुरुषके अवलम्बनकी जरूरत ही अनुभव नहीं होती। अब यदि कोई स्त्री यह समझे कि बिना किसीकी सहायताके काम ही नहीं चलेगा, जीना कठिन हो जायगा-तो यह बात नहीं है। अवसर पड़नेपर नयी परिस्थितियाँ आनेपर स्वयं कुछ-न-कुछ हल निकल ही आता है। डरना नहीं चाहिये, बल्कि साहसपूर्वक उसका सामना करना चाहिये।

मनुष्यके गुप्त मनमें निवास करनेवाली एक गुप्त शक्ति है, जिसे मानसिक स्वावलम्बन कह सकते हैं। यदि मनुष्य गुप्त मनमें यह धारणा कर ले कि मैं हर परिस्थितिसे लड़ूंगा और ढल जाऊँगा, तो निश्चय ही उसमें गुप्त सामर्थ्य प्रकट हो जायगी, जो उस विषमतासे युद्ध करनेकी शक्ति प्रदान करेगी।

पं० श्रीराम शर्मा आचार्य एक बार अपनी आदतोंके विषयमें बतला रहे थे कि वे जौके आटेकी रोटी और छाछपर निर्भर रहनेकी आदत डाल रहे है। कहने लगे, 'बात यह है कि हमें गायत्री-प्रचार-कार्यके लिये प्रायः देहातोंमें जाना पड़ता है। ग्रामीणोंमें रहते हैं। वे बेचारे इसी भोजनको दे पाते है। वहाँ यही भोजन खाकर काम चलाते हैं। भोजनकी वजहसे कोई भी बाधा उपस्थित नहीं होती।' पण्डितजी हर प्रकारकी परिस्थितियोंमें अपनेको ढालनेमें पटु हैं। अतः प्रत्येक परिस्थितिमें आह्लादकी उत्साहपूर्ण मनःस्थिति बनाये रहते हैं।

तात्पर्य यह है कि भगवान्ने मनुष्यके चरित्रमें एक ऐसा गुण भर दिया है कि यदि वह न होता, तो वह अधिक स्थायी आनन्द प्राप्त न कर पाता और उसकी अनायास ही अकाल मृत्यु हो जाती। यह गुण है परिस्थितियोंके अनुसार लचक। यदि उसमें यह लचक न होती, वह समय और नयी परिस्थितियोंके अनुकूल न ढल पाता, तो शायद संसारमें इतना न पनप पाता, जितना आज विकसित हुआ है और हो रहा है।

इस लचकके उदाहरण आपको जीवनके हर क्षेत्रमें प्राप्त हो जायँगे। क्या आपने कुएँकी ईंटोंमें उगे हुए पीपलके पेड़को देखा है? उसके पास पर्याप्त मिट्टी नहीं है। जडोंको फैलनेके लिये कोई गुंजाइश नहीं है। पर्याप्त प्रकाश और वायु भी नहीं है। फिर भी वह बढ़ता ही जाता है। बढ़कर मजबूत बन जाता है। उसकी जड़ें टेढ़ी तिरछी होकर उन्हीं विषम परिस्थितियोंमें अपने भोजनके उपकरण एकत्रित कर लेती हैं। पहाड़ोंकी चट्टानोंपर वृक्ष उगते हैं, बड़े होते जाते है, दृढ़ बनते रहते है और इस प्रकार पर्वतोंपर वन-के-वन हो जाते हैं। उन्हें देखकर आश्चर्य होता है कि वे कैसे मिट्टी, जल, प्रकाश, धूप और वायु पा लेते हैं। हर प्रकारकी विषमताओंसे लड़ने, जूझने-जैसी स्थितिमें पड़कर उसीमें पनपने-ढलनेके ये वृक्ष प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

एक ग्रामकी बात है। एक बार एक व्यक्तिके पाँवमें जख्म हुआ। बहुत दिनोंतक चिकित्सा होती रही। टाँग सड़ती गयी और अन्तमें यह तय किया गया कि टाँग काटी जायगी। जब इस व्यक्तिने सुना कि टाँग काटी जायगी, तो वह तिलमिला उठा। उफ्, बिना टाँग कैसे काम चलेगा? जिंदगी बचेगी या नहीं? भोजन कहाँसे आयेगा? भविष्य कैसे कटेगा? ऐसे सैकड़ों प्रश्र असंख्य बिच्छुओं-दंशोंकी तरह उन्हें विचलित करने लगे। पर पाँव काटा ही गया। इसके सिवा कोई दूसरा चारा ही न था। नयी परिस्थितियाँ उपस्थित हुईं। उनके कल्पित भय मिथ्या साबित हुए क्योंकि उन्होंने आश्चर्यसे देखा कि एक टाँग और दूसरीमें लगी हुई लकड़ीके सहारे ही जीवन फिर सरपट दौड़ने लगा। जीविका-उपार्जनके भी रास्ते निकल आये और अब तो यह हाल है कि वे सुबह सारे गांवमें फेरी लगाते हैं। कुछ दिनोंसे तो पीठ-पर बीस सेरतक बोझ लादकर उसे बेचते फिरते है। अपने दैनिक कार्य करनेमें भी उन्हें अब कोई असुविधा नहीं होती। एक टाँगके अभावमें ही जीवन बखूबी चला जाता है। अब नयी परिस्थितियोंसे उन्होंने जैसे समझौता कर लिया है।

भारतमें जब राजाओंके राज और जमींदारोंकी जमीन-जायदादें गयीं तो वे सोचते थे कि आगेका जीवन अब आखिर किस प्रकार चलेगा। ऐसे-ऐसे राजा जो बाजेका मधुर स्वर सुनकर ही जागते थे, अनेक व्यक्ति जिनकी जी-हजूरी और स्वागतमें लगे रहते थे, जिन्होंने व्यापार या अन्य कोई व्यवसाय कभी न किया था, वे अब नयी परिस्थितियोंके अनुकूल ढल गये है। साधारण व्यक्तिके जीवनसे उन्होंने समझौता कर लिया है। वे व्यापार आदिकी योजनाएँ बना रहे हैं। अनेक जागीरदार ठेकेदार बन चुके हैं। नयी परिस्थितियोंमें पूरी तरह ढल चुके हैं और पूरी तरह प्रसन्न है। यह चरित्रकी लचकका ही अद्धृत प्रताप है।

इतिहासकी ओर एक नज़र डालिये। कोलम्बस जब अमेरिकाकी खोजको चला, तो उसके पास एक मामूली-सा जहाज था। आनेवाले नये कष्टों और नवीन परिस्थितियोंकी कल्पनाओंसे उसके मित्र नाविकोंने उसे इतना डराया कि कुछ न पूछिये। वे कहते थे कि इतनी बड़ी यात्राके लिये उनके पास कोई स्थायी प्रबन्ध नहीं है; भोजन, निवास और मौसमके परिवर्तनकी कोई व्यवस्था नहीं है; फिर इतनी बड़ी यात्रा क्योंकर सम्पन्न होगी? कोलम्बसने किसीकी न मानी। वह यात्रापर चल ही दिया। सबने आश्चर्यसे सुना कि उसकी यात्रा पूर्ण हुई। सभी अच्छी-बुरी परिस्थितियोंका उन लोगोंने पूरी तरह सामना किया और पूर्ण विजय प्राप्त की।

सम्राट् शाहजहाँ औरंगजेब द्वारा अपमानित होकर जेलमें पड़े। कहाँ सुख-समृद्धि और विलासोंमें पलनेवाला सम्राट् और कहाँ जेलका जीवन! लोग समझते थे चार दिनमें सम्राट् समाप्त हो जायगा, उसका जीवन-दीप कठोर परिस्थितियोंके एक झटकेसे ही बुझ जायगा। पर नहीं, ऐसा नहीं हुआ। सम्राट्ने उसी परिस्थितिके अनुकूल अपनें-आपको ढाल लिया। उनमें जन्मसे ही हुकूमतकी आदत थी। जेलमें भी उन्होंने बच्चे पढ़ानेका ही काम माँगा। बच्चोंको पढ़ाकर अपनी हुकूमतकी प्रवृत्तिकी संतुष्ट करते रहे। अब सोचिये, यदि वे केवल जेलकी विकटताके ही दुःस्वप्र देखा करते, तो आखिर क्या होता? जीवनके जितने कटु-मृदु घूँट उनके भाग्यमें लिखे थे, वे भी उन्हें न मिल पाते। लचकके इस अद्धृत गुणने ही उन्हें ऊँचा उठाये और बचाये रखा था।

कहनेका अर्थ यह कि मनुष्यके स्वभाव और शरीरकी बनावट कुछ इस प्रकार की गयी है कि वह समय और विकट परिस्थिति पड़नेपर बखूबी उनके अनुसार ढल सकता है; लचककर नयी हालतोंके अनुसार अपनेको बना सकता है। दों-चार दिनके बाद उसे इस नये जीवनकी स्वतः आदत पड़ जाती है और नये सिरेसे जीवन चलने लगता है।

जब छोटे जार्ज वाशिंगटनका पिता मर गया था, तो उसकी माँ अकेली थी, भोजनका साधन न था। वह एक जंगलकी झोपड़ीमें रहती थी। कहते हैं उसमें भेड़िये भी रहते थे। माँ छोटे जार्जको सुबह खिला-पिला झोपड़ीमें ताला लगा स्वयं जंगलसे लकड़ी चुनने चली जाती थी और सायंकाल उन्हें बेचकर घर पहुँचती थी। रातमें बच्चेको जाकर गलेसे लगाती थी। प्यार करती और भोजन पकाकर खिलाती थी। इस प्रकार विरोधी परिस्थितियोंमें दृढ़ होकर जार्ज पलता रहा और एक दिन अमेरिकाका प्रेसीडेंट बना। इसी प्रकारके उदाहरण और बहुत-से हैं।

तुर्कीका कमालपासा स्कूलमें कहार था। वाल्मीकि डाकू थे और राहगीरोंको लूटकर जीविका चलाते थे। हिटलर मजदूरी करके दिन व्यतीत करता था। मुसोलिनीका बाप पहले इटलीमें एक लुहार था। ये सभी विषम परिस्थितियोंमें बढ़ते और पनपते रहे और महानताको प्राप्त हुए।

प्राचीन भारतमें विद्यार्थियोंके सर्वतोमुखी विकासके लिये गुरुकुलका कठोर अभावग्रस्त जीवन आवश्यक समझा जाता था। राजासे लेकर साधारण नागरिक भी अपने बच्चोंको असुविधा और कष्टोंका जीवन बितानेके लिये आश्रमोंमें भेजा करते थे। कष्ट एक प्रकारके शिक्षक थे, जिनकी कठोर परीक्षाएँ उत्तीर्ण करनेके उपरान्त विद्यार्थीको समग्र जीवनके कष्ट कर्तव्य-पथसे विचलित नहीं कर सकते थे। वह शिक्षा एक प्रकारसे कठोर परिस्थितियोंके अनुसार जीवन ढालनेकी शास्त्रीय पद्धति थी।

निष्कर्ष यह है कि इस देव-दुर्लभ मानव-शरीरका निर्माण कुछ इस प्रकार किया गया है और ऐसी-ऐसी गुप्त शक्तियाँ अणु-अणुमें भर दी गयी हैं कि प्रत्येक आदमी विषम-से-विषम और नयी-सें-नयी परिस्थितियोंके अनुकूल थोड़े-से परिश्रम और दृढ़तासे ढल सकता है।

ऐसी कोई विषम परिस्थिति नहीं जिसे आप न जीत सकें, आपकी शक्तियां सैकड़ों इन्द्रवज्रोंसे अधिक हैं। हर स्थितिपर पूर्ण विजय प्राप्त करनेकी गुप्त सामर्थ्य आपमें भरी पड़ी है। भयभीत होनेकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है।

प्रश्र उठता है कि यों तो समय आनेपर हर मनुष्य परिस्थितिके अनुसार बदल ही जाता है, लेकिन किस व्यक्तिको सच्चे अर्थोंमें ढला हुआ कहा जाय? क्या विवशता और मजबूरीकी टक्करोंसे बदला हुआ व्यक्ति ही सफल माना जाय? नहीं; वास्तवमें सफल व्यक्ति उसे कहना चाहिये जो नयी परिस्थितियों, विषमताओं और अड़चनोंमें भी अपने जीवनका संतुलन, अपना आदर्श न छोड़े। पूरी तरह लगा रहे। पूर्ण प्रसन्न रहे। स्वस्थ रहे। किसी अड़चनका अनुभव न करे।

स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने गीताके १२वें अध्यायमें इस विषयका कुछ संकेत किया है। समत्वयोगका तात्पर्य ही यह है कि मनुष्यजीवनकी सब स्थितियों, अड़चनों, कष्टोंमें पक्ष-विपक्ष, हानि-लाभ, मान-अपमानसे प्रभावित न हो। अपना आन्तरिक संतुलन बनाये रखे। संवेदनाका केन्द्र बाह्य पदार्थोंमें न रखकर अंदर आत्मामें, ईश्वरमें बनाये।

जो व्यक्ति संवेदनाका केन्द्र बाह्य पदार्थों या परिस्थितियोंमें रखते हैं, वे बार-बार उन स्थितियोंके बदलनेसे दुःखी रहते हैं। जो व्यक्ति अपनी आन्तरिक मनःस्थितियोंको ईश्वरत्वमें केन्द्रित करते रहते हैं, वे शाश्वत चिरस्थायी सुखका अनुभव करते हैं।

अतः असुविधाओं, कष्टों, विषम परिस्थितियों, प्रतिकूलताओंसे घबराइये नहीं। ये केवल मनकी दुर्बलता होनेपर मनुष्यको विचलित करती हैं। मस्तिष्कको नयी परिस्थितियोंके अनुकूल बदलनेकी आज्ञा दीजिये; विचारोंका दिव्य प्रवाह उधरको मोड़िये और एकाग्रतासे उसी ओर बढ़िये। फालतू क्षुद्र अनुराग, मोह, शंका आदिकी दुर्बलताओंमें मत फँसिये। आपकी अन्तरात्मामें जो गुप्त सामर्थ्य है, उसे बढ़ाइये। अपने हितकी बात सोचिये। आप यही कहिये कि 'अहं ब्रह्मास्मि' मैं ब्रह्म हूँ। पूर्ण समर्थ हूँ। मुझमें गुप्त शक्तिका अक्षय भंडार भरा हुआ है। इन्द्रियों, मन और बुद्धि तीनोंपर आत्म-सामर्थ्यसे मुझे विजय प्राप्त करनी है। मेरी आत्मशक्तिके सम्मुख कोई पाप नहीं ठहर सकता। मैं जीवनमार्गपर निष्कण्टक बढ़ रहा हूँ।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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